संध्या |
जो मैं चली फिर न मिलूंगी,
खो जाऊँगी मैं कहीं साजन मुझे आने दे या मेरे पास तू आ जा,,,,,,
जो मैं चली ...
आसूओं से जलते आकाश में अकेली ,डोलती हूँ तूफानों में कब से मैं अलबेली ,
दूर....ही से तुझको निहारे तेरी बिरहन मुझे आने दे या मेरे पास तू आजा.....
जो मैं चली ....
मैं लिए tadpungi ये आहों की माला ,फूंक डाले तन मेरा चाहे बिरहा की ज्वाला..
राख बन के lipatungee तुझ से मेरे साजन मुझे आने दे.या मेरे पास तू आ जा....
जो मैं चली फिर न मिलूंगी..
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१९७१ में आयी एक क्लासिक फिल्म 'जल बिन मछली,नृत्य बिन बिजली' व्ही .शांताराम जी की एक बेहद खूबसूरत और नायब फिल्म है.
मेरी पसंदीदा फिल्मों में से एक इस फिल्म का हर पक्ष प्रशंसनीय है चाहे वह कलाकरों की अदाकारी हो या निर्देशन या फोटोग्राफी या फिर गीत-संगीत.
जितनी बार देखें-सुने मन नहीं भरता ! .खासकर संध्या का नृत्य ..
एक पाँव पर बैसाखी के साथ जो उन्होंने परफोर्मेंस दी है वह लाजवाब है!
इस के सभी गीत एक से बढ़कर एक हैं ,आज एक गीत मैं अपने स्वर में सुनना चाह रही हूँ --जो अभिनेत्री संध्या पर फिल्माया गया है.गीत की मूल गायिका लता जी हैं और संगीत लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल जी का है.
इस के बोल मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे हुए हैं ..सुन कर बताएँ कि मेरा यह प्रयास कैसा रहा ?
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---------------स्वर-अल्पना -Cover song-
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