ग़ज़ल फिल्म दस्तक से है जिसे लिखा मजरूह सुलतानपुरी ने और धुन मदन मोहन जी की बनाई हुई है.फिल्म के लिए इस ग़ज़ल के दो ही शेर लिए गए हैं.यहाँ मैंने पूरी ग़ज़ल दी है..
फिल्म के लिए लता जी ने गाया है जिसे रहना सुल्तान पर फिल्माया गया था .
ग़ज़ल
हम हैं मता ए कूचा ओ बाज़ार की तरह ,
उठती है हर निगाह खरीददार की तरह
वो तो कहीं है और मगर दिल के आस पास
फिरती है कोई शै निगाहें ए यार की तरह
इस कू-ए-तिश्नगी में बहुत है के एक जाम
हाथ आ गया है दौलत-ए-बेदार की तरह
सीधी है राह-ए-शौक़ प यूँ ही कभी कभी
ख़म हो गयी है गेसू-ए-दिलदार की तरह
मजरूह लिख रहे हैं वो अहले वफा का नाम ....
हम भी खड़े हुए हैं गुनाहगार की तरह ...
हम हैं मता ए कूचा ओ ...
.................................
यहाँ जो प्रस्तुति है उसे मैंने अपना स्वर दिया है ,प्रयास किया है कि पूरी तरह से निभा सकूँ.
कवर संस्करण -
Vocals--Alpana Verma [dec,2012]
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6 comments:
वो तो कहीं है और मगर दिल के आस पास
फिरती है कोई शै निगाहें ए यार की तरह
खूबसूरत अशआरों के साथ लिखी मजरूह की यादगार ग़ज़ल
बहुत ख़ूब... अच्छा लगा अरसे बाद आपको सुनना...इस बीच कई चक्कर लगाए आपके ब्लॉग के..
शुक्रिया डॉ.महेंद्र जी और हिमकर श्याम जी.
हिमकर जी ,6 -7 महीने बाद यहाँ यह पोस्ट डाली है वाकई लम्बा अंतराल था...आगे ऐसी ग़लती नहीं होगी.:)...आभार
subah ek comment kiya wo kahin dikh nahi raha ... Why ?
मुझे ईश्वर शब्दों में ही दिख जाते हैं जो भी शब्द या लिरिक्स मन को छू जाए
मुस्कराहट सी खिली रहती है आँखों में कहीं, और पलकों पे उजाले से छुपे रहते हैं, प्यार कोई बोल नहीं, प्यार आवाज़ नहीं, एक खामोशी है सुनती है कहा करती है.... यही सत्य है, यही ईश्वर है... यही ज़िंदगी है, यही मोक्ष है, मिलना और बिछड़ना अपने हाथ नहीं होता ...." हम जितनी भी बार अपनी यादों के पन्नों को पलटकर देखते हैं तो महसूस करते हैं हर बार एक नयापन ..... aapki aawaj mein agar ye song record hai to please link dene ka kasht karen GOOD EVENING ... Alpna Verma ji
बहुत सुन्दर अंदाज बेहतरीन गायकी मधुर आवाज
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